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रण में फूल (भाग-1)

हिंदी कहानियां

रण में फूल (पार्ट -1)

पीपी.. पीपी...पीपी.... पीपी... पीपी

गाड़ियों की आती-जाती आवाजों के बीच सड़क के दूसरी ओर खड़े होकर, अपनी दाढ़ी खुजाते हुए मैं सोच रहा था कि," आज का दिन कितना उबाऊ है!"

उदयनगर शहर वैसे तो बहुत खूबसूरत है, लेकिन शाम होने पर धीरे-2 छाने वाला अंधेरा, लगातार चलती गाड़ियों के हॉर्न, ठेलों पर बिकते गोलगप्पे, स्टॉल पर दिन भर की थकान मिटाते चाय की चुस्कियां लेते मेरे जैसे कुछ लोग, घर को लौटते मजदूर और धुंधले आसमान में ढलते सूरज की लालिमा जब शहर से उठते धुएं से और धुंधली हो जाती है, वहीं कहीं घर को लौट रहे पंछी दिखाई पड़ते हैं।
सब अपने घर को चल रहे हैं। मैं भी सड़क पार करके एसबीआई बैंक के पास वाली चाय की टपरी से एक चुस्की चाय की भरकर अपनी मंजिल तक जाना चाहता हूं। घर लौटने के लिए मन में एक छोटे बच्चे जैसा उत्साह शायद परिपक्वता की निशानी है।

उदयनगर की शाम, खासकर शहर की इस इलाके की शाम कुछ अलग होती है। सड़कों पर एक रंगीन माहौल होता है।अपने 30 साल की पत्रकारिता के सफर में मैंने बहुत कुछ देखा लेकिन शराफत में लिपटी वासना और मदमस्त नजरों में छिपी मजबूरी का एक अलग मंजर इन सड़कों पर है। सीलन भरी गलियों में भला सुकून रह सकता है ?

गाड़ियों की आवाजाही कुछ कम हो रही थी। मैंने देखा कि चाय की टपरी वाला धीरे-धीरे सामान समेटकर घर चलने की तैयारी कर रहा है ।

शाम होते-होते प्रीति का चेहरा मेरी आंखों की तपन को कुछ ठंडा कर देता है। दिल्ली छोड़े कुछ वक्त ही हुआ है। प्रीति ने साथ आने की बहुत जिद की थी, मगर जब खुद का ही ठिकाना नहीं उसे अपने साथ चलने को कैसे कहता ? प्रीति दिल्ली के एक जाने-माने स्कूल में प्राइमरी सेक्शन की कोऑर्डिनेटर है ,उसकी अच्छी खासी सैलरी है। प्रीति यूपीएससी की तैयारी करना चाहती हैं। हालांकि मुझे लगता है, कि सारे अफसर बेवकूफ होते हैं, समझदार होते तो नेता बन जाते। खैर ऑफिसर बनने की चाहत प्रीति की जलन ज्यादा थी या प्रेरणा कह नहीं सकता। उसकी छोटी बहन मीनू श्रीवास्तव सामाजिक-आर्थिक ओहदेे मैं उससे कुछ ऊपर चली गई थी। मैं फिर भी इसे प्रीति की जलन नहीं कहूंगा। मेरे लिए अगर दुनिया में वफा का कोई चेहरा था, तो वो थी प्रीति शुक्ला। 

जब प्रीति को अपने साथ बाहर घुमाने ले गया था और अचानक से हमें लौटाना पड़ा था, तो बिल्कुल गुस्सा नहीं हुई थी। वो मेरे हाथ पर हाथ रखकर मुझे देख कर मुस्कुरा रही थी। बस....मैंने उस वक़्त गहरी सांस ली थी, चैन की कम, माफी की ज्यादा।

दिनभर की उमस ने मुझे बहुत थका दिया था। "विश्वास मेरा इंतजार कर रहा होगा ", यह सोचते हुए मैंने तेजी से सड़क पार करने के लिए दाए-बाए देखा और कुछ ही सेकंड में बंशी पैलेस वाली रोड से घर की ओर चलने लगा।

बिस्तर पर लेटे हुए मैंने अपनी सिगरेट सुलगा ली थी और हर एक कश के साथ प्रीति का वो चेहरा नजर आता जो मेरे छूने से उसके बदन में होने वाली सिरहन को उसके चेहरे की चमक बना देता था।

चेहरों की उदयनगर में कोई कमी नहीं थी, वैसे भी शहरों में क्या नहीं बिकता ? अपनी कमजोरी को जरूरत का जामा पहनाकर अक्सर अपने किए को सही ठहरा सकने की काबिलियत इंसानी नस्ल के अलावा है भी किसके पास ?

मैं भी तो इंसान ही हूं, ये सब सोचते हुए सुभाष ने लंबी और गहरी सांस ली और सिगरेट बुझा दी। बाहर बारिश शुरू हो गई थी। कहते हैं जिस रात नींद नहीं आती उस रात यादें आती हैसुुुभाष उठकर  बालकनी में रखी कुर्सी पर बैठ गया। स्ट्रीट लाइट पर गिरती बारिश को देखता रहा और सोचने लगा ,"क्या विक्रम को उसके घर भेज दूं ? लेकिन अगर विक्रम को फिर से उसके भाई ने किसी और को बेच दिया तो ? क्या चाय की टपरी वाली वो औरत विक्रम को मेरे साथ आने देगी ?
ख्यालों की चादर ओढ़े सुभाष को नींद ने वही उसी कुर्सी पर अपने आगोश में ले लिया।
                                       (कहानी जारी रहेगी...)

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