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राजस्थान के लोक वाद्य यंत्र

 
Folk instruments of Rajasthan


राजस्थान के लोक वाद्य यंत्र

लोक वाद्य लोकसंगीत के महत्वपूर्ण अंग होते है।
इनके प्रयोग से गीतों व नृत्यों के माधुर्य में वृद्धि होती है। 

लोक वाद्यों का वर्गीकरण

 अवनद्य
 घन
 तत्
 सुषिर
 
 
 
 

इकतारा
यह प्राचीन वाद्य है। गोल तूंबे में एक बांस फंसा दिया जाता है। तूंबे का ऊपरी हिस्सा काटकर उस पर चमड़ा मढ दिया जाता है।
• बांस में छेदकर उसमें खूंटी लगाकर उसमें एक तार कस दिया जाता है। इस तार को अंगुली से बजाया जाता है।
• यह वाद्य यंत्र एक हाथ से ही बजाया जाता है और दूसरे हाथ में करताल बजायी जाती है।
मीराबाई इकतारा ही बजाती थी।
• इसे कालबेलिया, नाथ, साधु-संन्यासी आदि बजाते हैं।

भपंग
• मेवात क्षेत्र (अलवर) का प्रसिद्ध वाद्य यंत्र है।
• इसका आकार डमरूनुमा होता है, जिसे एक ओर से बकरे के चमड़े से मढ़ते है तथा दूसरी ओर से खुला छोड़ दिया जाता है।
• चमड़े के बीच में से छेद कर एक तार निकाला जाता है, जिसे एक खूँटी से बाँध दिया जाता है।
• वर्तमान में इसे प्लास्टिक के तंतु से बनाते है
• इसे कांख में दबाकर बजाते है।।
• प्रसिद्ध कलाकार :- जहूर खाँ मेवाती

अलगोजा
• अलगोजा राजस्थान का राज्य वाद्य है।
• यह बांसुरी की तरह होता है। इसमें दो बांसुरियों का जोड़ा होता है जो एक साथ बजाया जाता है।
• अलगोजा में स्वरों के लिए छः छेद होते हैं।
स्वरों की शुद्धता के लिए इनके बीच निश्चित दूरी रखी जाती है।
• वादक दो अलगोजे अपने मुँह में रखकर एक साथ
बजाता है, एक अलगोजे पर स्वर कायम रखते हैं और दूसरे
पर स्वर बजाये जाते है।
• अलगोजा को वीर तेजाजी की जीवन गाथा, डिग्गीपुरी का राजा, ढोला-मारू नृत्य और भवाई नृत्य में भी बजाया जाता है।
• इसका प्रयोग भील और कालबेलिया जातियाँ अधिक करती है। 
• प्रसिद्ध कलाकार - रामनाथ चौधरी (पदमपुरा गाँव, जयपुर) नाक से अलगोजा बजाते है।

कामायचा
• जैसलमेर और बाड़मेर क्षेत्र का प्रसिद्ध वाद्य।
• यह सारंगी के समान होता है। 
• सारंगी की तबली लंबी होती है परंतु कामायचा की तबली चौड़ी व गोल होती है, जिसके कारण इसकी ध्वनि में भारीपन और गूँज होती है।
• तबली पर चमड़ा मढ़ा होता है।
• इसका सर्वाधिक प्रयोग मुस्लिम शेख (मांगणियार), लोकगीत व मांड गायन के दौरान करते है।
प्रसिद्ध कलाकार:- साकर खाँ (पद्मश्री पुरस्कार)

खड़ताल
• खड़ताल शब्द करताल से बना है। 
• खड़ताल कैर व बबूल की लकड़ी से बना होता हैं।
• इसमें दो लकड़ी के टुकड़ों के बीच में पीतल की छोटी-2 तश्तरियाँ लगी रहती हैं, जो कि लकड़ी के टुकड़ों को आपस में टकराने पर मधुर स्वर व ध्वनि उत्पन्न करती है।
• खड़ताल को इकतारा से बजाया जाता है।
• भक्तजनों व साधु-संतों द्वारा खड़ताल का प्रयोग किया
जाता है।
 • प्रसिद्ध कलाकार :- सद्दीक खाँ (बाड़मेर)
इन्हें खड़ताल का जादूगर कहा जाता है।

चंग
शेखावाटी क्षेत्र का लोकप्रिय वाद्य।
होली के अवसर पर चंग वाद्य बजाया जाता है।
• यह लकड़ी के गोल घेरे के रूप में होता है।
• चंग में एक तरफ बकरे की खाल होती है तथा दूसरी तरफ इसे खाली छोड़ा जाता है।
• इसे दोनों हाथों से बजाया जाता है। 
• चंग को कालबेलियाँ जाति के व्यक्ति बजाते हैं।
• इस पर कहरवा ताल बजायी जाती है।

जंतर
• यह वीणा के जैसा होता है।
• वीणा की तरह इसमें भी दो तूंबे होते हैं।
• इनके बीच बांस की लंबी नली लगी होती है।
• यह वाद्य अंदर से खोखला होता है। इसकी खोखली संरचना को डाँड कहा जाता है, जो बाँस की बनी होता है। जन्तर वाद्य पर मगर की खाल के 22 पर्दे मोम से चिपकाये जाते है एवं इन पर्दों के ऊपर पाँच या छ: तार लगे होते है, जिन्हें हाथ की अँगुली या अँगूठे से बजाया जाता है।
• वादक इसे गले में डालकर खड़ा-2 ही बजाता है।
देवनारायण जी की फड़ गाते समय गुर्जर भोपों द्वारा बजाया जाता है।

झांझ
• शेखावाटी क्षेत्र का प्रसिद्ध वाद्य।
• इसका आकार मंजीरे से बढ़ा होता है।
• कच्ची घोड़ी नृत्य में ताशे के साथ बजाते हैं।

ढोल
• यह एक मांगलिक वाद्य है।
• इसे विभिन्न संगीत कलाओं में सहायक वाद्य के रूप में या स्वतंत्र रूप से बजाया जाता है।
 • यह वाद्य पहले लकड़ी का बनाया जाता था, किन्तु अकबर के समय से लोहे का बनाने लगे। 
इसके लोहे या लकड़ी के गोल घेरे पर दोनों चमड़ा मढ़ा जाता है।
वादक ढोल को अपने गले में लटकाकर लकड़ी के डण्डे से बजाता है।
राजस्थान में इसे बजाने के 12 प्रकार है। जैसे- गैर का ढोल, नाच का ढोल, आरती का ढोल आदि।
• इसे मांगलिक अवसरों पर अधिक बजाते हैं। जैसे - भीलों के गैर नृत्य, शेखावाटी के कच्छी घोड़ी नृत्य और जालौर के ढोल नृत्य में।

अपडेट जारी.....
जल्द ही सचित्र PDF डाल दी जाएगी।

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