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आखिरी शाम...

हिंदी कहानियां

आखिरी शाम 

  अगर हिसाब लगाने  बैठूं तो पाता हूं कि जितना खोया उसका बहीखाता कभी कर नहीं पाऊंगा और जो पाया वह भी पाया ही क्या ? बूढ़े बरगद की जो छवि उन आंखों में नजर आती थी वह हर वक्त मेरे मन में एक अजीब सा अंतर्द्वंद पैदा करती हैं।

 प्रताप की जिंदगी ऐसे दौर से गुजरी थी, कि कई बातें उसके मन को कचोटती थी। तीन साल से ज्यादा वक्त हो गया, लेकिन अपने पिता को अपना मानना आज भी उसके बस के बाहर था।
जब कभी लौटने की सोचता घर का कड़ा अनुशासन, पारिवारिक झगड़े खुद का धूमिल होता वजूद उसकी आंखों में किसी मोतियाबिंद की तरह चुभने लगता।
बदलते ग्रामीण भारतीय समाज में माता -पिता और पीढ़ी के बीच टकराव कोई नई बात नहीं है। फिर भी प्रताप ने कभी अपने मूल्यों को नहीं छोड़ा था। बरखा और उसके परिवार के सामने कई बार अपना दर्द बयां कर चुका था। वह अपने पिता से बात नहीं करता था, ऐसा भी नहीं था लेकिन वह बातचीत बाप-बेटे के रिश्ते की कम, एक गुलाम और मालिक के रिश्ते की ओर ज्यादा इशारा करती थी।
प्रताप होनहार था, सपने थे, विद्रोह कब उसके जेहन में पनप गया उसे खुद नहीं पता। इतना सब होने पर भी कभी पिता से ऊंची आवाज में बात की हो कहना मुश्किल है।
मां के फोन उसकी उम्मीद नहीं बंधा सकते थे, क्योंकि यह मां  पहले जैसी नहीं थी। मां और पिता के बीच बढ़ते वैचारिक मतभेद ने प्रताप के अंतर्मुखी व्यक्तित्व को उदासीन बना  दिया था। बावजूद इसके उसने लड़ना नहीं छोड़ा था, लेकिन इस लड़ाई ने उसके पास कुछ नहीं छोड़ा था।
बड़ा अजीब है, कि हम जिस मुकाम को हासिल करने के लिए इतनी जद्दोजहद करते हैं, अक्सर उस का सफर हमें इतना थका देता है, कि मंजिल तक पहुंच कर भी खुशी कम, जिम्मेदारी का बोझ ज्यादा महसूस होने लगता है।

"अपनी ख्वाहिश ही मुझे यहां ले आई थी। या सच कहूं तो मेरा जुनून, मेरे सपने जिनके लिए मैं अपने पिता तक से शीत युद्ध कर आया था।
जब घर से निकला था, तब पिता से बैर नहीं था। लेकिन जब महसूस किया कि उनके लिए मेरे ख्वाब बोझ भी बन सकते हैं ? यकीन नहीं कर पाया था क्योंकि हमारे समाज में तो, बेटे शुरू से ही अपने पिता के प्रेम के अघोषित उत्तराधिकारी बनते आए हैं। फिर मेरा कसूर क्या था ?जैसे-जैसे किताबों से नजदीकी बढ़ती गई, घर की यादें वह यादें जहां खुद को खुद के करीब पाता था दूर होती गयी।
हर दिन होते नए बदलाव के साथ मैं खुद इतना बदल गया हूं कि अक्सर रातों को अपनी किताबें छोड़ कर कमरे के बाहर छत पर अकेले बैठा आसमान के तारों में अपना वजूद खोजता रहता हूं।
बरखा से दोस्ती तोड़े आज दो साल हो गए थे। आपका भरोसा जीत कर आपकी पीठ में खंजर कैसे मारा जाए। यह कोई बरखा से सीखे। कई महीनों, हफ्तों, दिनों तक भूल नहीं पाया था। फिर एक रात ख्याल आया न जाने अभी और कितनी बरखा देखनी बाकी हैं ।"

दरअसल प्रताप को रविंदर की दगाबाजी से कोई मलाल नहीं था। आखिर बरखा को तवज्जो ही कितनी दी थी उसने ? और वक्त आने पर बरखा ने भी हिसाब बराबर कर दिया था।
प्रताप का सारा गुस्सा अपनी छवि को लेकर था। जिसे बरखा ने ध्वस्त कर दिया था, मगर प्रताप इन सब के बावजूद जानता था कि दोषी एक ही आदमी है, वह है, वह खुद।

 "यहां आकर साल भर में, मैं यह भी भूल गया कि यहां क्यों आया था ?"
दिल्लगी करने वाला आवारा दिल प्रताप का नहीं था। मगर कपट कब घर कर गया, उसे पता ही नहीं चला, मगर प्रताप की जड़ें इतनी खोखली नहीं थी कि इस चकाचौंध, अंतरंग  रिश्तों से उसके इरादों का पेड़ उखड़ जाए।
आखिर बरगद की छवि वाली वो आंखे उसका साथ कब छोड़ने वाली थी ?
"उस रोज मैंने फिर से सोच लिया था कि मैं इसे खत्म करूंगा! मैं नहीं जानता था, इसका नतीजा क्या होगा लेकिन अगर मैं इतना बुरा था जितना कि निकृष्ट, तो  मैं अब इतना ऊपर उठूंगा जितना कि उत्कृष्ट।"

"प्रताप ....एक ऐसी आवाज आई जो उसके कानों में तब-2  खनक उठती थी जब-2 वो आंखे बंद करके उसे सुनता था।  जो उसकी धड़कनें बढ़ा देती थी ।

 "प्रताप... आपकी कॉफी ,आज आपको सोना नहीं है ?"
अमीषा ने प्रताप की मेज पर कॉफी का मग रखते हुए कहा। अमीषा प्रताप की जिंदगी का एक हिस्सा बल्कि यूं कह लीजिए उसकी जिंदगी है। बहुत कम लोग उस एहसास को जी पाते हैं, जो प्रताप और अमीषा के बीच है और उससे भी कम उसे कैद कर पाते हैं।
जब-2 प्रताप अमीषा को देखता है, सोचता है, क्या वो उसके लायक है ?
प्रताप ने अमीषा को गले से लगा लिया। अमीषा हड़बड़ा उठी। आज उस फैसले को तीन साल बीत गए जिसने प्रताप और उन बुरी यादों के बीच कभी ना मिटने वाले फासले पैदा कर दिए थे, जिस फैसले की बदौलत वह उस मानसिक दलदल से बाहर निकल आया था।
हा, उसके और उसके पिता के बीच ज्यादा कुछ नहीं बदला था, मगर अब पहले जैसी दूरी भी नहीं थी। ना पिता से ना सपनों से।

अमीषा की आंखें सुर्ख लाल हो गई थी, उसे प्रताप की धड़कने भांपने की आदत जो थी। प्रताप के लिए जितना प्यार उसके दिल में था, उससे कहीं ज्यादा इज्जत थी। प्रताप ने अपनी हथेलियों के बीच उसका गर्म चेहरा थाम लिया।

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खिड़की के बाहर दूर कन्ही सूरज डूब रहा था। जिसकी नारंगी- लाल रोशनी भीनी - भीनी खुशबू लिए प्रताप और अमीषा को छू रही थी। प्रताप और अमीषा एक-दूसरे को देख कर मुस्कुरा रहे थे। प्रताप के लिए फैसले की सालों पुरानी वह आखिरी शाम, आज हजारों उम्मीदों की रोज एक नई सुबह थी....

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