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न्यायालय की अवमानना ।। प्रशांत भूषण पर ₹1 का जुर्माना

प्रशांत भूषण पर ₹1 का जुर्माना


न्यायालय की अवमानना



चर्चा में क्यों

हाल ही 31 अगस्त 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने वकील प्रशांत भूषण पर न्यायपालिका की अवमानना के लिए ₹1 का जुर्माना लगाया है।
अधिवक्ता को न्यायपालिका के खिलाफ ट्वीट करने का दोषी पाया गया।
 न्यायालय की अवमानना अधिनियम 1971 के तहत उन पर यह जुर्माना लगाया गया है।
15 सितंबर तक जुर्माना नहीं भरने की स्थिति में प्रशांत भूषण 3 वर्ष तक वकालत नहीं कर सकेंगे और 3 माह की सजा भुगतनी होगी।


न्यायालय की अवमानना अधिनियम 1971 क्या है ?

इसके अनुसार अगर किसी व्यक्ति, संस्था या सरकार द्वारा किसी न्यायालय की गरिमा तथा उसके अधिकारों के प्रति अनादर दिखाया जाता है, तो अनुच्छेद 129 सुप्रीम कोर्ट को तथा अनुच्छेद 215 हाई कोर्ट को अधिकार देता है, कि वह अवमानना  के मामले में दंड दे सकते हैं।

सीके दफ्तरी बनाम ओपी गुप्त केस
सर्वोच्च न्यायालय स्पष्ट कर चुका है, कि संविधान के अनुच्छेद 129 और 215 के तहत मिले उसके अधिकारों में ना तो संसद और ना ही किस राज्य की विधानसभा कटौती कर सकती हैं।

इस अधिनियम द्वारा अवमानना को दो भागों में बांटा गया है -
1. आपराधिक अवमानना - इसके तहत न्यायालय से जुड़ी किसी ऐसी बात के प्रकाशन से है, जो लिखित, मौखिक, चिन्हित, चित्रित या अन्य किसी तरीकेे से न्यायालय की अवमानना करती हो।

2. सिविल अवमानना - कोर्ट द्वारा जारी आदेशों, रिट अथवा निर्णयों की पालना नहीं करने पर सिविल अवमानना मानी जाती है।

नोट - इस कानून में प्रावधान है कि दोषी ठहराए गए व्यक्ति के द्वारा माफी मांगने पर अदालत चाहे तो उसे माफ कर सकती है।
साथ ही किसी मामले में निर्दोष साबित होने पर की गई टिप्पणी, न्यायिक कृत्यों की निष्पक्ष और उचित आलोचना एवं न्यायालय के प्रशासनिक पक्ष पर टिप्पणी करना न्यायालय की अवमानना के अंतर्गत नहीं आता है।


दंड का प्रावधान

सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय को इस अधिनियम के तहत दंडित करने की शक्ति प्राप्त है।
दंड के रूप में 2000 का चालान हो सकता है या फिर 6 महीनों की साधारण जेल हो सकती है या फिर दोनों एक साथ हो सकता है।

वर्ष 1991 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह फैसला सुनाया गया कि वह अपनी अवमानना के अलावा अपने अधीनस्थ न्यायालयों एवं न्यायाधिकरणों की अवमानना होने पर भी दंड दे सकता है।


कानून की आवश्यकता क्यों

इस अधिनियम द्वारा संविधान निर्माताओं का मुख्य उद्देश्य न्यायालयों की गरिमा और प्रासंगिकता बनाए रखना था।
न्यायालय द्वारा जारी आदेशों की पालना सुनिश्चित करवाने की शक्ति न्यायालय के पास होनी ही चाहिए और इसी आधार पर सिविल अवमानना के तहत दंड देने की शक्ति दी गई है।
अवमानना मामलों में अधिकार जजों को भय, पक्षपात और भेदभाव की भावना के बिना कर्त्तव्यों का निर्वहन करने में सहायता करते हैं।


अभिव्यक्ति का अधिकार बनाम अवमानना

न्यायालय की अवमानना अधिनियम 1971 संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा भारत के प्रत्येक नागरिक को दी गई अभिव्यक्ति एवं भाषण की स्वतंत्रता को कम करता है। अधिनियम द्वारा न्यायालय की कार्यप्रणाली के खिलाफ बोलने की आजादी पर अंकुश लगा दिया गया है।

स्त्रोत - जनसत्ता समाचार पत्र

मुलगांवकर सिद्धांत
अधिवक्ता प्रशांत भूषण को अदालत की अवमानना का दोषी ठहराये जाने पर, उनके वकील ने 'मुलगांवकर सिद्धांतों' का आह्वान करते हुये अदालत से संयम दिखाने का आग्रह किया।

1978 के ‘एस. मुलगांवकर बनाम अज्ञात’ मामले में अवमानना के विषय पर एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया गया था। इसमें 2-1 बहुमत से, अदालत ने द इंडियन एक्सप्रेस के तत्कालीन संपादक मुलगांवकर को अवमानना का दोषी नहीं माना था, हालांकि उसी पीठ ने कार्यवाही शुरू की थी।
जस्टिस पी कैलासम और कृष्णा अय्यर ने भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एम एच बेग के खिलाफ बहुमत प्राप्त किया था।
न्यायमूर्ति अय्यर द्वारा अवमानना क्षेत्राधिकार का पालन करने में सावधानी बरतने को 'मुलगांवकर सिद्धांत' कहा जाता है। उन्होंने मीडिया को शामिल करते हुये मुक्त आलोचना के संवैधानिक मूल्यों और एक निडर न्यायालय प्रक्रिया और न्यायाधीश की आवश्यकता के साथ सामंजस्य स्थापित करने के पक्ष में तर्क दिया था।

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