पहचान : एक हिंदी कविता
पहचान अगर पहचाननी है मेरी,
जो मैं हो चुकी वही पहचान है मेरी।
करतब हम क्या दिखाएं इस बेताब सफर में,
सफर को खुद ही सौंप दिया यह भार हमनें।
यह तो खुद गुनगुनाते हैं मेरी उपस्थिति का एहसास,
यह तो चलने को खुद है बेकरार।
पहचान अगर पहचाननी है मेरी,
जो मैं कर्तव्य पथ पर ठानी हूं वही पहचान है मेरी।
इरादा तो बनाया है एक परे पहचान का,
इल्म है उस पथ पर दृढ़ता से चलने का।
निशंक हूं दृढ़ता की राह पर चलने को,
पथ तो स्वयं बेताब है मेरी गुनगुनाहट को।
पहचान अगर पहचाननी है मेरी,
जितना मैंने अभी तय किया है वही पहचान है मेरी।
जितना चल चुके हैं, कितना उसमें चलें ?
कितना चले ? यह तो हम भी अनभिज्ञ हैं।
लेकिन जो चले उससे पर पथ सर्वज्ञ हैं।
अब तो राह भी पहचानने लगी है हमें,
सुना है -
यह वही राही है जो दृढ़ता से तय किए है हमें।
पहचान अगर पहचाननी है मेरी,
जो मैं बनने जा रही हूं वही पहचान है मेरी।
~~अश्वनी
पुकार
सत्ताएं क्यों चुप बैठी है ?
क्यों महाभारत करवाने पर तुली है ?
आज विदुर क्यों कुछ नहीं बोलते ?
या आज वह विदुर नहीं है ?
या सत्य को कहने का साहस नहीं है ?
क्यों हो रहा है जगदीश्वर यह बेहाल ?
क्यों नहीं करते रक्षा, बढ़ा चीर उस द्रौपदी की ?
क्या आज आप उसके ऋणी नहीं हो ?
क्या आज द्रोपदी आपकी बहन नहीं है ?
क्या आज सखा का फर्ज नहीं निभाओगे ?
क्यों ये सत्ताधारी अंधे हो जाते हैं ?
~~अश्वनी
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