जैन नीतिशास्त्र
जैन दर्शन में मनुष्य के सदाचरण को सर्वाधिक महत्व दिया गया है और इसके लिए चित्त शुद्धि को अनिवार्य माना गया है।यहां मोक्ष को कैवल्य कहा गया है। जिसको प्राप्त करने के बाद व्यक्ति सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाता है।
जब जीव पुद्गल (सांसारिक वस्तु ) की ओरआकर्षित होता है, तब बंधन उत्पन्न होता है इसे जैन दर्शन में आस्त्रव कहा गया है।
जीव को बंधन से मुक्त करने के लिए दो विधियां हैं :-
(1) संवर
(2) निर्जरा
संवर का अर्थ है - पुद्गल का प्रवाह जीव की ओर रोकना। इससे नए कर्म उत्पन्न नहीं होते।
निर्जरा का अर्थ है - पूर्व में संचित कर्मों को समाप्त करना।
मुक्ति के लिए त्रिरत्नों और पंच महाव्रतों का पालन किया जाना चाहिए।
त्रिरत्न:-
(1) सम्यक दर्शन:- सम्यक दर्शन का अर्थ है तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों में पूर्ण आस्था।
(2) सम्यक ज्ञान:- सम्यक ज्ञान का अर्थ है तीर्थंकरों द्वारा बताए गए नियमों और सिद्धांतों का अध्ययन करके उन्हें भली-भांति समझ लेना समय ।
(3) सम्यक चरित्र:- इसका अर्थ है दैनिक जीवन में तीर्थंकरों द्वारा बताए गए नियमों और सिद्धांतों का पूर्ण रुप से पालन करना।
पंच महाव्रत:-
(1) सत्य:- जो तथ्य जैसा देखा, सुना, समझा गया है ,उसे वैसा ही बिना किसी संशोधन के व्यक्त कर देना सत्य कहलाता है। यह व्रत सभी प्रकार की धोखेबाजी का निषेध करता है।
(2) अहिंसा:- मन, कर्म और वचन से किसी को भी कष्ट ना पहुंचाना अहिंसा कहलाता है। इस व्रत का पालन दृढ़ता से किया जाना चाहिए अर्थात् किसी भी परिस्थिति में अहिंसा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता।
(3) अस्तेय:- इसका अर्थ है चोरी ना करना ।प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भी। यहां भौतिक, मानसिक और वैचारिक चोरी को भी निषेध किया गया है।
(4) अपरिग्रह:- इसका अर्थ है एकत्रित ना करना तथा किसी वस्तु के प्रति आसक्ति ना रखना। यह महाव्रत सभी प्रकार के लोभ का निषेध करता है।
(5) ब्रह्मचर्य:- मन, कर्म और वचन से इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण करना तथा सभी प्रकार के इंद्रिय सुखों को त्यागना ब्रह्मचर्य कहलाता है।
संन्यासियों के लिए इन बातों का पालन कठोरता से करना अनिवार्य है परंतु गृहस्थ जनों के लिए कुछ छूट दी गई है जिसे अणुव्रत कहा जाता है।
जो व्यक्ति कैवल्य को प्राप्त कर लेता है उसे जिन कहा जाता है। कैवल्य की प्राप्ति पर जीव अपने वास्तविक स्वरूप में चला जाता है। वास्तविक अवस्था में जीव चार स्वभाविक गुणों को प्राप्त कर लेता है
(1) अनंत दर्शन
(2) अनंत ज्ञान
(3) अनंत सामर्थ्य
(4) अनंत सुख
जैन दर्शन में मनुष्य कैवल्य स्वयं के प्रयासों से ही प्राप्त कर सकता है। यहां किसी देवी शक्ति की उपासना को स्वीकृत नहीं किया गया।
बौद्ध नीतिशास्त्र
भगवान बुद्ध ने चार आर्य सत्य को स्वीकार किया है:-(1) संसार में सर्वत्र दुख है - सभी प्राणियों का जीवन दुखमय है, जैसे वृद्धावस्था, रोग, मृत्यु, इच्छित वस्तुओं का प्राप्त ना होना, अप्रिय वस्तुओं और व्यक्तियों के संपर्क में आना, प्रिय वस्तु और व्यक्तियों से वियोग से सभी दुखपूर्ण है।
(2) दुख का कारण है:- संसार में सभी वस्तुओं का कुछ ना कुछ कारण है। इसलिए दुख का भी कारण है। बुद्ध ने दुख के 12 कारणों की श्रंखला बताई है :-
A.जरा - मरण
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(4) दुख निरोध का मार्ग :- बुद्ध के अनुसार आष्टांगिक मार्ग का पालन करने से दुख को समाप्त किया जा सकता है।
आष्टांगिक मार्ग:-
(1) सम्यक ज्ञान:- चार आर्य सत्यों को भलीभांति समझना
(2) सम्यक संकल्प:- दुख का नाश करने का भाव और दुर्गुणों का परित्याग करने का संकल्प
(3) सम्यक वचन:- कभी भी झूठ ना बोलना तथा कटु वचनों का प्रयोग ना करना
(4) सम्यक कर्मः- दुष्कर्मों का त्याग किया जाए और सत्कर्मों का पालन किया जाए।
(5) सम्यक आजीव:- केवल उचित और न्याय पूर्ण तरीकों से ही जीविकोपार्जन करना
(6) सम्यक व्यायाम:- मन में बुरे भाव ना आए तथा अच्छे भाव आए इसके लिए प्रयास करना
(7) सम्यक स्मृति:- वस्तु के वास्तविक स्वरूप का स्मरण करना
(8) सम्यक समाधि:- विचारों को एकाग्र करना
दुख का निवारण करने पर व्यक्ति निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है।
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