1. सोफिस्ट विचारक :-
ये ग्रीक विचारक सुकरात से पूर्व के काल में हुए । सोफिस्ट शब्द ग्रीक भाषा के सोफोस से बना है जिसका अर्थ होता है - शिक्षक। ये ग्रीस के युवाओं को व्यवहारिक जीवन जीने की शिक्षाएं देते थे।इनकी कोई स्वतंत्र पुस्तक उपलब्ध नहीं है। इनके बारे में जानकारी प्लेटो से मिलती है।
इन्होंने नैतिकता में संदेहवाद ,आत्मनिष्ठता तथा सापेक्षता पर बल दिया।
इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति की इच्छाएं , आवश्यकताएं , क्षमताएं आदि अलग-2 होती है। अतः सभी पर एक समान नैतिक नियम नहीं थोपे जा सकते प्रत्येक व्यक्ति के नैतिक नियम अलग-2 होने चाहिए।
प्रमुख सोफिस्ट विचारक अग्र लिखित है :-
(A) प्रोटेगोरस - इसके अनुसार सभी वस्तुओं का मानक मनुष्य होता है।(B) प्रोडिकस - इसके अनुसार कोई भी वस्तु अपने आप में मूल्यवान नहीं होती। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं के अनुसार वस्तुओं को मूल्यवान बनाता है। इसी प्रकार कोई भी सामाजिक नियम अपने आप में मूल्यवान नहीं होता है। मनुष्य की आवश्यकता और इच्छाओं के अनुसार है उसका मूल्य निर्धारित होता है।
(C) थ्रेसीमेकस - इसके अनुसार कानून शक्तिशाली लोगों की इच्छाएं होती है। अतः कानून के पालन को न्याय नहीं बल्कि अन्याय कहा जाना चाहिए।
2. सुकरात :-
यह एक प्रमुख ग्रीक विचारक था इसके विचारों के बारे में जानकारी प्लेटो से उपलब्ध होती है।इसने सोफिस्टों की आलोचना की क्योंकि यदि नैतिक नियम आत्मनिष्ठ होंगे तो सामाजिक व्यवस्था को बनाए नहीं रखा जा सकता ।
सामाजिक व्यवस्था और मानव कल्याण के लिए व्यक्ति को सद्गुणी जीवन जीना चाहिए।
इसके अनुसार सद्गुण एक है और वह ज्ञान है। यहां ज्ञान का अर्थ तथ्यात्मक ज्ञान नहीं है। ज्ञान का वास्तविक अर्थ है कि व्यक्ति सही - गलत , उचित - अनुचित , शुभ - अशुभ में स्पष्ट भेद कर सकें।
ज्ञानी व्यक्ति कभी भी गलत कार्य नहीं कर सकता क्योंकि व्यक्ति गलत कार्य कर रहा तब इसका अर्थ है कि उसे सही और गलत के बीच भेद नहीं पता है अर्थात ज्ञान व्यक्ति के आचरण को भी प्रेरित करता है।
ज्ञान की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को उसके अज्ञान का ज्ञान होना चाहिये।
सुकरात का प्रसिद्ध कथन था मुझे मेरे अज्ञान का ज्ञान है।
(3) प्लेटो :-
यह सुकरात का शिष्य था ।इसकी संस्था का नाम एकेडमी था।
इसने राजनीतिक दर्शन के साथ-साथ नैतिक दर्शन की व्याख्या भी की है।
इसकी प्रमुख पुस्तकें हैं :-
(1) रिपब्लिक (2) फिलेबस
प्रत्ययों का सिद्धांत :-
ज्ञान के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए प्लेटो के द्वारा प्रत्ययों का सिद्धांत दिया गया। इसके अनुसार वस्तुओं और क्रियाओं से भिन्न प्रत्यय का एक स्वतंत्र अस्तित्व होता है। जैसे सुंदर वस्तुएं इसलिए सुंदर है क्योंकि सुंदरता का प्रत्यय एक दूसरी दुनिया में है अर्थात प्लेटो द्वारा प्रत्यय की दुनिया की कल्पना की गई ।प्लेटो के अनुसार भौतिक जगत असत्य और अवास्तविक है जबकि प्रत्ययों का जगत सत्य और वास्तविक है। सभी वस्तुएं प्रत्ययों की अपूर्ण प्रतिकृतियां है। प्रत्यय अमूर्त, अनश्वर और पूर्ण है ।
प्रत्यय को बुद्धि के द्वारा ही जाना जा सकता है । वही व्यक्ति सद्गुणी है जो कि बुद्धि के द्वारा सद्गुणों के प्रत्यय का ज्ञान प्राप्त कर चुका है।
प्लेटो के अनुसार शुभ का प्रत्यय सबसे महत्वपूर्ण है अन्य सभी प्रत्ययों में शुभ के प्रत्यय की अभिव्यक्ति होती है। बुद्धि के द्वारा शुभ के प्रत्यय का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। ऐसे व्यक्ति में सभी सद्गुण स्वतः ही आ जाते हैं।
न्याय का सिद्धांत :-
व्यक्ति में न्याय:-प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा के 3 पक्ष होते हैं-
(1) बुद्धि (2) संवेग और (3) इच्छा
इनमें से प्रत्येक का अपना अपना एक विशेष कार्य है।
बुद्धि का विशेष सद्गुण विवेक है जो कि विभिन्न परिस्थितियों में व्यक्ति का मार्गदर्शन करता है तथा इच्छा और संवेग को नियंत्रित करता है।
संवेग का विशेष सद्गुण साहस है जिसके माध्यम से व्यक्ति बाधाओं , विपत्ति और भय पर विजय प्राप्त करता है।
इच्छा का विशेष सद्गुण संयम है, जिसके माध्यम से व्यक्ति इच्छाओं को नियंत्रित करता है।
जब व्यक्ति के तीनों पक्ष अपने-अपने सद्गुण के अनुसार कार्य करते हैं तब व्यक्ति में न्याय की स्थापना होती है अर्थात मनुष्य विवेकपूर्ण आचरण करें , साहस से बाधाओं पर विजय प्राप्त करें तथा अपनी भावनाओं और इच्छाओं को नियंत्रित करें तब व्यक्ति में न्याय होता है।
व्यक्ति में कोई एक सद्गुण प्रधान होता है।
समाज में न्याय :-
इनमें से प्रत्येक का अपना अपना एक विशेष कार्य है।
बुद्धि का विशेष सद्गुण विवेक है जो कि विभिन्न परिस्थितियों में व्यक्ति का मार्गदर्शन करता है तथा इच्छा और संवेग को नियंत्रित करता है।
संवेग का विशेष सद्गुण साहस है जिसके माध्यम से व्यक्ति बाधाओं , विपत्ति और भय पर विजय प्राप्त करता है।
इच्छा का विशेष सद्गुण संयम है, जिसके माध्यम से व्यक्ति इच्छाओं को नियंत्रित करता है।
जब व्यक्ति के तीनों पक्ष अपने-अपने सद्गुण के अनुसार कार्य करते हैं तब व्यक्ति में न्याय की स्थापना होती है अर्थात मनुष्य विवेकपूर्ण आचरण करें , साहस से बाधाओं पर विजय प्राप्त करें तथा अपनी भावनाओं और इच्छाओं को नियंत्रित करें तब व्यक्ति में न्याय होता है।
व्यक्ति में कोई एक सद्गुण प्रधान होता है।
समाज में न्याय :-
प्लेटो के अनुसार समाज तीन वर्गों में विभाजित है -
प्रथम वर्ग में वे नागरिक है जिनमें विवेक का सद्गुण प्रधान है। इन्हें प्रशासनिक व्यवस्थाएं संभालनी चाहिए तथा समाज के लिए नियमों और कानूनों का निर्माण करना चाहिए।
दूसरे वर्ग में वे नागरिक शामिल हैं, जिनमें साहस का सद्गुण प्रधान है। इन्हें सेना तथा पुलिस में भर्ती होना चाहिए। आंतरिक और बाह्य सुरक्षा की जिम्मेदारी इन पर होनी चाहिए।
तीसरे वर्ग में वे नागरिक शामिल हैं जिनमें संयम का सद्गुण प्रधान है। इन्हें समाज में उत्पादन का कार्य करना चाहिए। जैसे - कृषि , श्रम , वाणिज्यिक गतिविधियां आदि ।
यदि समाज में तीनों वर्ग अपने-2 उत्तरदायित्व का पालन करते हैं तथा दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करते हैं। ऐसे समाज में न्याय की स्थापना होती है ।
राज्य में न्याय :-
वह राज्य न्याय पूर्ण है, जिसका राजा दार्शनिक है। ऐसे न्याय पूर्ण राज्य को यूटोपिया कहा गया है।
प्लेटो के अनुसार मुख्य सद्गुण चार है :-
(1) विवेक
(2) साहस
(3) संयम
(4) न्याय - न्याय का सद्गुण सबसे महत्वपूर्ण है।
प्लेटो के अनुसार सद्गुण जन्मजात होते हैं।
प्लेटो की आलोचना :-
(1) प्रत्यय का जगत मात्र एक कल्पना है प्रत्यय का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है। प्रत्यय का अस्तित्व वस्तु में ही होता है।
(2) प्लेटो के अनुसार सद्गुण 4 है परंतु अरस्तु के अनुसार सद्गुण अनेक है।
(3) सद्गुण जन्मजात नहीं होते हैं। अरस्तु के अनुसार सद्गुण अर्जित किए जाते हैं।
(4) यूटोपिया मात्र एक कल्पना है पूर्ण रूप से न्यायपूर्ण समाज नहीं बनाया जा सकता है।
प्रथम वर्ग में वे नागरिक है जिनमें विवेक का सद्गुण प्रधान है। इन्हें प्रशासनिक व्यवस्थाएं संभालनी चाहिए तथा समाज के लिए नियमों और कानूनों का निर्माण करना चाहिए।
दूसरे वर्ग में वे नागरिक शामिल हैं, जिनमें साहस का सद्गुण प्रधान है। इन्हें सेना तथा पुलिस में भर्ती होना चाहिए। आंतरिक और बाह्य सुरक्षा की जिम्मेदारी इन पर होनी चाहिए।
तीसरे वर्ग में वे नागरिक शामिल हैं जिनमें संयम का सद्गुण प्रधान है। इन्हें समाज में उत्पादन का कार्य करना चाहिए। जैसे - कृषि , श्रम , वाणिज्यिक गतिविधियां आदि ।
यदि समाज में तीनों वर्ग अपने-2 उत्तरदायित्व का पालन करते हैं तथा दूसरे के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करते हैं। ऐसे समाज में न्याय की स्थापना होती है ।
राज्य में न्याय :-
वह राज्य न्याय पूर्ण है, जिसका राजा दार्शनिक है। ऐसे न्याय पूर्ण राज्य को यूटोपिया कहा गया है।
प्लेटो के अनुसार मुख्य सद्गुण चार है :-
(1) विवेक
(2) साहस
(3) संयम
(4) न्याय - न्याय का सद्गुण सबसे महत्वपूर्ण है।
प्लेटो के अनुसार सद्गुण जन्मजात होते हैं।
प्लेटो की आलोचना :-
(1) प्रत्यय का जगत मात्र एक कल्पना है प्रत्यय का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है। प्रत्यय का अस्तित्व वस्तु में ही होता है।
(2) प्लेटो के अनुसार सद्गुण 4 है परंतु अरस्तु के अनुसार सद्गुण अनेक है।
(3) सद्गुण जन्मजात नहीं होते हैं। अरस्तु के अनुसार सद्गुण अर्जित किए जाते हैं।
(4) यूटोपिया मात्र एक कल्पना है पूर्ण रूप से न्यायपूर्ण समाज नहीं बनाया जा सकता है।
(4) अरस्तु :-
यह प्लेटो का शिष्य था ।अरस्तू को नीतिशास्त्र का जनक कहा जाता है। इसके द्वारा नीतिशास्त्र पर पहली स्वतंत्र पुस्तक निकोमेकियन एथिक्स लिखी गई।
प्लेटो जहां एक आदर्शवादी विचारक है वही अरस्तु एक व्यावहारिक विचारक है।
अरस्तू के अनुसार जीवन का परम उद्देश्य यूडेमोनिया की प्राप्ति करना है । यूडेमोनिया का अर्थ है - आनंद ।
जीवन में अन्य सभी वांछनीय वस्तुएं यूडेमोनिया प्राप्त करने का साधन है। जैसे - धन , शारीरिक स्वास्थ्य , परिवारजन ,मित्र अर्थात अरस्तु इनके महत्व को नकारता भी नहीं है।
यूडेमोनिया की प्राप्ति के लिए सद्गुणी जीवन जीना आवश्यक है। अरस्तु के अनुसार सद्गुण अनेक है और इन्हें अर्जित किया जा सकता है।
इसके अनुसार आत्मा के दो पक्ष होते हैं - बौद्धिक और निर्बोद्धिक। बौद्धिक पक्ष से बौद्धिक सद्गुण विकसित होते हैं। जैसे अध्ययन से विवेक के सद्गुण को अर्जित किया जा सकता है।
निर्बोद्धिक पक्ष में नैतिक सद्गुण विकसित होते हैं जैसे साहस, संयम ।इसके लिए अभ्यास की आवश्यकता होती है।
सद्गुणी जीवन जीने से व्यक्ति अपनी क्षमताओं का पूर्ण विकास कर पाता है। इसी से वह भय , घबराहट आदि से मुक्त हो जाता है और जीवन आनंदमय बन जाता है। सद्गुणी जीवन से मानसिक शांति और स्थिरता प्राप्त होती है।
सबसे महत्वपूर्ण सद्गुण मध्यम मार्ग है इसका अर्थ है व्यक्ति को सभी प्रकार की अतिवादिताओं से बचना चाहिए। जैसे - बर्बरता और कायरता के बीच साहस मध्यम मार्ग है ।
सब कुछ प्राप्त करने और सब कुछ त्यागने की इच्छा के मध्य न्याय मध्यम मार्ग है।
(5) अन्य ग्रीक विचारक :-
{A} सिरेनिक्स{B} सिनिक्स
{C} एपीक्यूरियनवाद
{D}स्टॉइक्स
{A} सिरेनिक्स :- यह अपने आप को सुकरात का अनुयायी मानते थे। ये दार्शनिक ग्रीस के शिरीन शहर में हुए ।
इस विचारधारा का संस्थापक एरिस्टिपस था। ये विचारक मनोवैज्ञानिक सुखवाद और नैतिक सुखवाद को स्वीकार करते हैं।
मनोवैज्ञानिक सुखवाद - इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जन्म से ही स्वार्थी होता है तथा वह स्वयं का सुख जाता है।
नैतिक सुखवाद - क्योंकि सभी व्यक्ति सुख चाहते हैं इसलिए सुख प्राप्त करने के लिए किए गए कार्य नैतिक होते हैं।
ये विचारक मानसिक सुख की बजाय शारीरिक सुख को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं।
Note:- भारत में इनके समानांतर विचारधारा चार्वाक की है।
{B} सिनिक्स :- यह सिरेनिक्स की विरोधी विचारधारा है।
इसका संस्थापक एन्टीस्थिनस था जिसका शिष्य डायोजिनस था ।
इन्होंने सभी प्रकार के सुख का विरोध किया है। यदि व्यक्ति सुख के पीछे भागता है तब वह व्यक्ति इच्छाओं का गुलाम बन जाता है। इच्छाओं का गुलाम बनने से अच्छा है पागल हो जाना।
इनके अनुसार व्यक्ति को कठोरता और गरीबी में जीवन जीना चाहिए। किसी भी वस्तु पर निर्भरता नहीं होनी चाहिए। इससे व्यक्ति विवेकपूर्ण तथा संयमी बनता है। जिससे एक सशक्त चरित्र का निर्माण होता है।
सिनिक्स शब्द का अर्थ है - कुत्ते की तरह।
{C} एपीक्यूरियनवाद :- यह सिरेनिक्स की परिष्कृत विचारधारा है। इसका संस्थापक एपिक्यूरस था ।
इन्होंने मनोवैज्ञानिक सुखवाद व नैतिक सुखवाद को स्वीकार किया।
ये शारीरिक सुख की बजाय मानसिक सुख को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं । शारीरिक सुख अल्पकालिक होता है तथा इसका परिणाम दुख होता है जबकि मानसिक सुख दीर्घकालिक होता है और इसका परिणाम भी सुख होता है।
मानसिक सुख की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को कला , साहित्य , दर्शन आदि का अध्ययन करना चाहिए। इच्छाओं को नियंत्रित किया जाना चाहिए तथा व्यक्ति को भय से मुक्त होना चाहिए ।
इनके अनुसार इच्छाएं दो प्रकार की होती है -
(1) अनिवार्य इच्छाएं - भूख , प्यास आदि । इन इच्छाओं की पूर्ति की जानी चाहिए।
(2)अनावश्यक इच्छाएं - जैसे धन प्राप्ति की इच्छा, पद प्राप्ति की इच्छा , बदला लेने की इच्छा । इन इच्छाओं को नियंत्रित किया जाना चाहिए।
व्यक्ति को दो प्रकार के भय होते हैं -
(1)मृत्यु का भय
(2)ईश्वर का भय
ये भय अज्ञान और अंधविश्वास के कारण होते हैं।
{D}स्टॉइक्स :- यह सिनिक्स की परिष्कृत विचारधारा है। इसका संस्थापक जेनो था।
अन्य विचारक - एपिक्टेटस, सेनेका, मार्कस ऑरिलियस
जेनो के घर को स्टॉ कहा जाता था। इसलिए इस विचारधारा को स्टॉइक्स कहा जाता है।
इनके अनुसार सद्गुणी जीवन सुख प्राप्त करने का साधन मात्र नहीं है। यह एक स्वतः साध्य है।
व्यक्ति को अपनी प्रकृति के अनुसार जीवन जीना चाहिए। किसी भी व्यक्ति या वस्तु में आसक्ति नहीं होनी चाहिए ।आसक्ति ही दुख का कारण है।
इनके अनुसार व्यक्ति वास्तविकता की बजाय कल्पनाओं में अधिक दुखी होता है उसे उन बातों के बारे में विचार नहीं करना चाहिए जो उसके नियंत्रण में नहीं है।
भावनाओं का दमन किया जाना चाहिए तथा बुद्धि पर अधिक बल दिया जाना चाहिए।
इनके अनुसार विश्व ईश्वर की अभिव्यक्ति है इसलिए जो कुछ भी घटित होता है वह ईश्वर की इच्छा है।
मनुष्य में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।
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